1857 के बाद भारतीय समाज और शिक्षा में बदलाव

ब्रिटिश राज के अधीन पाबंदियों और नई शिक्षा व्यवस्था

1857 के बाद शिक्षा और समाज में बदलाव – ऐतिहासिक दस्तावेज़

                     देश भर में ईसाई पादरियों की हरकतें जो थी वह सब 1857 के विद्रोह का एक बुनियादी कारण था। और जैसे-जैसे व्यापारिक कंपनी ने अपनी पकड़ भारत देश में मज़बूत हुई, पादरियों की शरारतें बढ़ती चली गईं। 

               1857 में, लॉर्ड मिंटो (गवर्नर जनरल) को सबसे पहले यह एहसास होने लगा कि पादरियों की इन शरारतों की वजह से मुश्किलया बढ़ेगी और इसका अंजाम खतरनाक होगा पादरियों के लेख और भाषण का अंदाज बिल्कुल ही अलग और गैर जिम्मेदाराना था। 

पादरियों ने सहरामपुर क्या किया?

           पादरियों ने सहरामपुर (बंगाल) में कुछ पर्चे पब्लिक में बंटवाए। जिसका टाइटल था। "हिंदुओं और मुसलमानों के नाम संबोधन"। यह पर्चे हिंदू धर्म और इस्लाम पर क्रूर हमले का बहुत बड़ा हमला था। 

             लॉर्ड मिंटो ने इन पर्चों के लिए सहरामपुर के गवर्नर को पत्र लिखा इन पर्चों का अंजाम सही नहीं होगा और इस धार्मिक भावनाएं भड़केगी और अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह हो सकता है। और अंग्रेजों को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है            

            राजनीतिक हिसाब से चलना मुश्किल होगा जवाब में सहारनपुर के गवर्नर ने आश्वासन दिया, लेकिन वह सिर्फ जबानी थी; उसका कोई हल नहीं निकला। पादरियों ने अपने जुनून की ताकत में अपनी वही शरारतें जारी रखीं।

लॉर्ड मिंटो का सुझाव क्या दिया?

            लॉर्ड मिंटो ने सुझाव दिया कि उनके प्रेस को कलकत्ता में ले जाया जाए और ऐसी घटनाओं पर सख्ती से नजर रखी जाए। लेकिन पादरियों को यह पसंद नहीं आया। उन्होंने गवर्नर जनरल को एक पत्र भेजा और आगे ऐसी हरकतें न करने का वादा किया, जिसका समर्थन सहरामपुर के गवर्नर ने भी किया। व्यक्तिगत रूप से, लॉर्ड मिंटो ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के सक्रिय समर्थक थे। इसलिए मिंटो ने दिल्ली और आगरा में बैपटिस्ट मिशनरी सोसाइटी को स्थापित किया और उसको मुख्य केंद्र बनाया।

             मिंटो की सोच थी ईसाई धर्म के प्रचार से ही इस देश की तरक्की होगी और वह इसकी गारंटी देते थे। हालाँकि, उन्हें दूसरे धर्मों पर हमला करके हलचल नहीं मचानी चाहिए, लेकिन कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का यही फैसला था।

              पुजारियों पर किसी भी तरह का प्रतिबन्ध लगाने के पक्ष में नहीं थे और उनके समूह भारत पहुँच रहे थे। श्री एस. आर. बख्शी की हाल की अंग्रेजी कृति "ब्रिटिश डिप्लोमेसी एण्ड एडमिनिस्ट्रेशन"7 उस काल के दस्तावेजों और पत्राचार की सहायता से इन परिस्थितियों को उजागर करती है तथा यह मत भी प्रकाश में लाती है 

               जब इन पुजारियों पर प्रतिबन्ध लगाने का निर्णय लिया गया, जिसका एक प्रमुख कारण हाल ही में वेल्लोर का विद्रोह था, तब इंग्लैण्ड में क्लाइड्स बैचैनिन और मार्क्समैन आदि ने इन प्रतिबन्धों के विरुद्ध आन्दोलन चलाया, जिसके फलस्वरूप 1813 के चार्टर एक्ट में उन्हें स्वतन्त्रताएँ प्रदान की गईं, भारत में प्रवेश पर प्रतिबन्ध हटा लिया गया और विभिन्न स्थानों पर उनके केन्द्र स्थापित किए गए (धारा 49 एक्ट 1813)।

ईसाई शिक्षा कैसे शुरू हुई?

               पादरियों को आजादी देने का परिणाम यह हुआ कि उन्होंने पूरे देश में स्कूल बना दिए जिनमें ईसाई शिक्षा शुरू कर दी और फिर धर्मांतरण की घटनाएं बढ़ने लगीं। और आज आजाद भारत में भी ईसाई स्कूलों का प्रमाण सबसे ज्यादा है।

                ब्रिटिश शासन से पहले भी, स्कूल, मदरसे और पादशालाएँ थीं जहाँ हिंदू और मुस्लिम बच्चों को सभी को बिना किसी भेदभाव के फ़ारसी, अरबी, अंकगणित और संस्कृत पढ़ाई जाती थी। मराठों ने भी जहाँ भी सत्ता हासिल की, उन्होंने भी भेदभाव नहीं किया और फ़ारसी शिक्षा को बढ़ावा दिया। और उन्होंने मदरसों की व्यवस्था को जारी रखा और मिल-जुलकर चलने लगे।

 फारसी भाषा क्यों खत्म हुई ?      

                लेकिन 1836 में ब्रिटिश शासन के बाद, सब कुछ बदलने लगा और फारसी भाषा को दरबार की भाषा से खत्म कर दिया। और अंग्रेजी भाषा के चलन को लागू करने का रास्ता बिल्कुल साफ हो गया, और सारी स्थानिक भाषाओं में झगड़े शुरू होने लगे। 

जिससे अंग्रेज़ी का रास्ता साफ़ हो गया और प्राचीन मातृभाषा बेकार हो गई। और इसकी जगह अंग्रेजी थोपे जाने लगी। पादरियों के स्कूलों का असली मकसद ईसाई धर्म का प्रसार करना था और इसकी आबादी बढ़ाना था जिसके साथ वे अंग्रेज़ी पढ़ाते थे और बाइबल भी पढ़ाते थे।



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