मराठों के पतन से दिल्ली पर अंग्रेज़ी कब्ज़ा: शाह आलम और मराठा के बीच का गठ जोड़।

1761 की पानीपत की हार से लेकर लाल क़िले के अपमानजनक घटनाक्रम

1761 की पानीपत की लड़ाई के बाद मराठा शक्ति का पतन, गुलाम कादिर की क्रूरता, और अंग्रेजों का दिल्ली के लाल किले पर कब्जा
                       
                       मराठाओ की ताकत का सत्यानाश होने के बाद अंग्रेजों के लिए अपने साम्राज्य का रास्ता आसान हो गया था। अब उनकी नजर सीधे दिल्ली की ओर थी जिसको वोह हड़प कर के पूरे हिंदुस्तान पर अपना वर्चस्व करना चाहते थे, और इस इससे मुगलों का वारिस बनना चाहते थे।

                       जिसने भी पूरे भारत पर राज करने की चाहत रखी, उसने दिल्ली की तरफ कूच की। भले भारत के अधिक हिस्सों पर कब्जा हो, लेकिन जब तक दिल्ली की गद्दी हाथ न लगी, तब तक खुद को सुरक्षित नहीं मानता था।

                      जब तक मराठा साम्राज्य मजबूत और शासन में रहा, तब तक अंग्रेजों के लिए दिल्ली की गद्दी पर बैठना उनके लिए सेफ नहीं था और वे मुगल शासन के सिंहासन पर दावा नहीं कर सकते थे।

                     जैसे ही मराठा शासन कमजोर हुआ, उनका सिंहासन कमजोर हुआ, अंग्रेजों ने मौके का फायदा उठाया और दिल्ली की तरफ बढ़ने लगे और वहां का माहौल बदलने लगा और मुगलों के हाथ से दिल्ली निकलने लगी।


दिल्ली में अंग्रेजों के शासन का रास्ता कैसे साफ हुआ?

                      दिल्ली की घटनाओं के खेल को समझने के लिए 16वीं वीं सदी के इतिहास को जानना होगा। 1761 में पानीपत की लड़ाई में मराठाओं की हार हुई और दिल्ली के आसपास जो मजबूत वर्चस्व था, वह भी कमजोर हुआ। 

                    पानीपत की लड़ाई से पहले इतनी ताकत थी कि सेनापति सदाशिवराव भाऊ दिल्ली में रुका, तो उसने साफ-साफ ऐलान किया कि जब वह युद्ध में विजय हासिल करेगा, अपने बेटे को दिल्ली की गद्दी पर बिठाएगा और भारत पर मराठाओं का मजबूत शासन होगा।

                    लेकिन इस लड़ाई में मराठा साम्राज्य की नींव डगमगाने लगी और सदाशिवराव और उसके साथी युद्ध में अपनी जान की बाजी हार गए। इससे मराठाओं का अगला मिशन तो दूर की बात, जो हाथ में था वोह भी संभालना मुश्किल हो गया। 

                   इस युद्ध से उस वक्त पर तख्त नशीन दिल्ली के मुगल बादशाह शाह आलम को फायदा हुआ, हालांकि वह इतना कमजोर हो चुका था कि उनके नाम के आगे 'बादशाह' लगाना उस शब्द का अपमान था।

मुग़ल बादशाह और मराठा के बीच की क्या संधि हुई?

                   भले ही वह किसी ज़माने में सबसे पावरफुल रहे मुग़ल बादशाहों का वंशज था, लेकिन हकीकत में उसे 1771 में अंग्रेजों की कैद में अपना टाइम गुजारना पड़ा। वह सिर्फ कहने को दिल्ली का शासक था; उनकी इतनी ताकत नहीं थी कि वह अंग्रेजों के सामने टिक सके।

                     उनका सारा काम मंत्री संभाला करते थे, और दिल्ली के आसपास बहुत कम इलाकों में उनका शासन था शाहआलम अंग्रेजों की छत के नीचे रह रहकर तंग आ गया। 1764 में बक्सर की लड़ाई के बाद शाहआलम अंग्रेजों का गुलाम बन चुका था।

                     सात साल गुलामी की तरह सिर्फ नाम की बादशाही गुजारने के बाद एक खुफिया तरीका आजमाया जो कामयाब हुआ। उन्होंने मराठा सरदार माधोजी सिंधिया को संदेश भेजा और समझौता किया जो कामयाब रहा। 

                    शर्त के मुताबिक मराठा शाहआलम को हिंदुस्तान का बादशाह मानेंगे, लेकिन असल बादशाह मराठा होंगे और वही लोग इसकी रक्षा करेंगे।

                    इसके बाद शाह आलम मराठा सेना के साथ दिल्ली आए और 35 साल तक ऐसे ही शासन चलता रहा, और मुगल बादशाह दोनों सत्ताओं के बीच में कठपुतली की तरह बन बनकर रह रह गए लगातार गेहूं की तरह पिसते रहे।

                    असली शासन चलाने वाले वजीर थे, और अवध के नवाब वजीर शुजाउद्दौला और नजफ खां दोनों की थोड़ी बहुत ताकत की वजह से मुगलों का दिल्ली के आसपास शासन चलता रहा और किसी न किसी स्थिति में मुगलों का नाम जिंदा रहा।

शाह आलम की मौत के बाद क्या हुआ ?

                 शाह आलम की मृत्यु के बाद कई नए सरदारों ने सत्ता के लिए संघर्ष करना शुरू कर दिया। राजपूत और पठान मधोजी सिंधिया से सिंहासन छीनने के लिए एकजुट हुए। लाल सोठ की प्रसिद्ध लड़ाई में सिंधिया को हराया गया, फिर विजयी दलों के बीच आपसी झगड़े शुरू हो गए।

                  इसमें पठान नेता गुलाम कादिर सफल रहे। वह बहादुर था, लेकिन लालच और क्रूरता में वह अपने समय के सबसे बुरे सरदारों से भी आगे था। कहा जाता है कि जब वह युवा था और सम्राट के दरबार में काम करता था, एक बार सम्राट नाराज हो गया और उसे किले से निष्कासित कर दिया।

                    इस अपमान की आग उनके दिल में जल रही थी। ऐसा लगता है कि उन्हें भी अपनी जीत की स्थिरता पर भरोसा नहीं था। उनका मानना था कि उनकी शक्ति केवल कुछ दिनों तक रहेगी और जल्द ही कोई और ताकतवर उसे बाहर निकाल देगा। इसलिए, उसने सोचा कि जिन दिनों उसे सत्ता मिली है, उन्हें जितना धन लूटना चाहिए।


और इसी तरह दिल्ली के शासन में कुछ सालों में ही काफी उतार चढ़ाव आया।

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